75. राजनन्दिनी : वैशाली की नगरवधू
साकेत के सर्वसाधन - सुलभ प्रासाद में राजनन्दिनी चन्द्रप्रभा सुख से रहने लगीं । उसके लिए सुख के जितने साधन कोसल - राजकुमार प्रस्तुत कर सकते थे, उन्होंने यत्नपूर्वक कर दिए। उन्होंने यद्यपि राजकुमारी की केवल एक झलक - भर नौकारूढ़ होते समय देख पाई थी , पर उसी से उनका सुप्त तारुण्य सहस्र मुख से जागरित हो गया । परन्तु राजकुमार विदूडभ चरित्रवान् पुरुष थे। उन्होंने मागध मित्र से जो शब्द कहे थे, उनका मूल्यांकन करना वह जानते थे। उन्होंने यत्नपूर्वक अपने को राजकुमारी से तटस्थ रखा । फिर भी उनका मन रह -रहकर विद्रोह करने लगा । वे राजकुमारी को विविध सुविधाएं , सुख- साधन और मनोरंजन के साधन प्रस्तुत करने में हार्दिक आह्लाद की अनुभूति करते रहे । परन्तु बहुत इच्छा होने पर भी उन्होंने राजनन्दिनी को देखने की चेष्टा नहीं की , यद्यपि इसमें एक यह भी कारण था कि यज्ञ की उलझनों और अपनी अभिसंधि के ताने - बाने में वे बुरी तरह उलझे हुए थे।
राजनन्दिनी के साथ जो दस यवनी दासियां गान्धारी कलिंगसेना ने भेजी थीं , वे बड़ी चतुर थीं । उन्होंने विविध नृत्य - गान -विनोद और कौतुक - प्रदर्शन से कुमारी का अच्छा मनोरंजन किया । क्षण - भर को कुमारी यहां आकर अपनी विपन्नावस्था को भूल गईं ।
परन्तु सोम की स्मृति अब उन्हें अधिक संतप्त करने लगी। दिन -दिन उन्हें सोम का वियोग असह्य होने लगा । परन्तु उन्हें विश्वास था कि सोम उनके निकट हैं और उन्हें प्राप्त करने में अब कोई बाधा नहीं होगी। इसी विचार से वह प्रहर्षित थीं ।
सोम और कुण्डनी ने भी प्रच्छन्न भाव से साकेत तक राजनन्दिनी के साथ ही यात्रा की थी और एक सुयोग पाकर कुण्डनी प्रासाद में जा कुमारी से मिली भी । कुण्डनी को देख कुमारी अत्यन्त आनन्दित हुईं। उसका बहुविध आलिंगन करके उन्होंने विविध प्रश्न किए। पर कुण्डनी ने वाक्छल और चांचल्य से उन्हें तंग करने के बाद बताया कि सोम भी साकेत में हैं और कुमारी को देखना चाहते हैं तथा उनका भी प्रेमावेश कम नहीं है। यद्यपि यहां सोम के आने में कोई बाधा नहीं थी , फिर भी लज्जावश कुमारी ने सोम से छिपकर मिलना नहीं स्वीकार किया। उन्होंने बहु तरह से सोम की चर्चा की और फिर साहस करके कुण्डनी से कहा - “ सखी, उनसे कहो, वे भगवान् महाश्रमण से मिलकर अपने मन की बात कह दें । फिर वे जो कुछ आदेश दें । ”
कुमारी की इच्छा जानकर सोम और कुण्डनी श्रावस्ती आए। आकर सोम ने श्रमण महावीर से फिर साक्षात् किया । श्रमण महावीर ने बहुत देर मौन रहकर कहा - “ भद्र सोम , अपने हित के लिए तुम उनसे अभी दूर रहो। यथासमय मैं कर्तव्य -प्रदर्शन करूंगा । ”
सोम श्रमण महावीर की बात से बहत निराश हए । उन्होंने हठ करके श्रमण की इच्छा के विपरीत कुण्डनी को फिर साकेत भेजा । उसने कुमारी से साक्षात् कर श्रमण
महावीर का अभिप्राय यथारूप से कहा। कुमारी ने सुनकर कहा - “ तो हला कुण्डनी, जैसी भगवान् महाश्रमण की इच्छा है वैसा ही हो । तुम सोमभद्र से कहो कि जब तक आदेश न हो , वे यहां न आएं । यथासमय महाश्रमण स्वयं आदेश देंगे। ”
सोम कुण्डनी से कुमारी का यह उत्तर पाकर निराश और उदास रहने लगे । परन्तु सेनापति उदायि ने उन्हें कुछ आवश्यक आदेश दिए थे, वह उनके पालने में कई दिन तक बहुत व्यस्त रहे और एक प्रकार से उन्होंने कुमारी का ध्यान ही न किया । परन्तु अवसर पाते ही वह साकेत गए और राजकुमारी से भेंट की ।
उस समय कुमारी ने श्वेत पुष्प - गुच्छों का शृंगार कर श्वेत कौशेय धारण किया था । सोमप्रभ को देखते ही उनके नेत्र हंसने लगे ।
सोम ने अनुताप के स्वर में कहा
“ संयत न रह सका राजनन्दिनी ! महाश्रमण के आदेश के विपरीत आने का दुःसाहस मैंने किया है। ”
“ यह तो ठीक नहीं हुआ , प्रियदर्शन! ”
“ परन्तु मैं क्या करूं कुमारी, तुम्हीं ने इस अकिंचन को बांध लिया ! ”
“ प्रिय , ऐसा अधैर्य क्यों ? भगवान् महाश्रमण जानेंगे तब ? ”
“ प्रिये , तुम कह दो कि तुम मेरी हो , फिर मैं भगवान् महाश्रमण के प्रति अपराध का प्रायश्चित्त कर लूंगा। ”
“ और यदि मैं कुछ न कहूं तो ? ”कुमारी ने हास्य छिपाते हुए कहा ।
सोम ने दो चरण आगे रख कुमारी का अंचल हाथ में ले घुटनों के बल बैठ चूम लिया । उन्होंने कहा - “ प्रिये , चारुशीले , तुमने मुझे आप्यायित कर दिया , मैंने तुम्हारे नेत्रों में पढ़ लिया । ”
“ तो भद्र, मुझे भी आप्यायित करो। ”
“ कहो प्रिये, मुझे क्या करना होगा ? ”
“ अब बिना महाश्रमण की आज्ञा लिए यहां मत आना भद्र! ”
“ ओह , यह तो अति दुस्सह है । ”
“ सो क्या तुम्हारे ही लिए प्रिय ? ”
“ तो प्रिये , मैं सहन करूंगा। ”
“ यही उत्तम है, धर्मसम्मत है, गुरुजन - अनुमोदित है। सोम प्रियदर्शन , अब तुम जाओ, कोई दासी हमें साथ देखे, यह शोभनीय नहीं है।
“ जैसी राजनन्दिनी की इच्छा ! ”
सोम बार -बार प्यासी चितवनों से कुमारी को फिर -फिर देखते हुए वाटिका से निकले और शीघ्र श्रावस्ती की ओर चल दिए ।